Wednesday 22 May 2013

meri dunia mere papa


 मैं पराई नहीं, मैं तो आपकी हूं पापा...
i love u miss u dad

 ‘अरे! सुनती हो निक्को की मम्मी, लड़के वालों ने अपनी निक्को को पसंद कर लिया है। कितना
परेशान से थे दो साल से। चलो भगवान ने हमारी सुन ली।’ घर के बड़े दरवाजे से दीनानाथ तेज
कदमों और चेहरे पर ढेर सारी खुशियों को समेटे बाहर से ही यह खुशखबरी सुनाते हुए आए।
क्या बात है निक्को के पापा इतना काहे खुश हो, इतने खुश तो पहले कभी न देखा था। पता नहीं
क्या आप बाहर से बोलते हुए आए, नाराज न हो तो दोबारा बताइए क्या बता रहे थे आप? हैरान
होते हुए निक्को यानी निकिता की मां उमा ने पूछा।
अरे उमा! तुम मुझे पागल समझती हो...इस बात पर क्यों नाराज होऊंगा, एक नहीं दस बार पूछो,
आज मैं बहुत खुश हंू। अच्छा ऐसे घूर-घूर के न देखो।...दरअसल अपनी निक्को को बिजनौर
वालों ने पसंद कर लिया है। क्या बात कर रहे हो निक्को के पापा, बड़ी अच्छी खबर सुनाई
आपने। अपनी निक्को वहां बहुत खुश रहेगी, है कि नहीं। हामी भराते हुए निक्को की मां ने पूछा।
दीनानाथ ने भी कहा, ‘हां वो तो है।’ तभी निक्को आॅफिस से आ गई, उसे देखते ही दीनानाथ ने
उसे गले से लगा लिया और उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। निक्को ने परेशान होते हुए
पूछा, ‘क्या हुआ पापा, आप रो क्यों रहे हैं?’ 
अपनी भावनाओं को छिपाते हुए उन्होंने कहा, ‘कुछ नहीं, तुम्हारा रिश्ता तय हो गया है। तैयारी
करनी है, तुम ऊपर जाओ।’ 
निक्को और उसकी मां में इतना साहस नहीं था कि कोई बात दीनानाथ से दोबारा पूछ सकें। सभी
अपने-अपने काम में लग गए। उनकी आवाज से पूरा घर जो कांप जाता था। शादी के तीस सालों
बाद उमा ने अपने पति को खुश होते हुए देखा था।
खैर दीनानाथ ने यह खबर फोन से अपने सभी रिश्तेदारों को देना शुरू कर दी, कि अगले हफ्ते
निक्को की सगाई है। आना जरूर है आप सबको। घर में निक्को की सगाई की तैयारियां चलने
लगीं। हर तरफ हंसी-ठिठोली, गीत-संगीत का माहौल। 
निक्को की मां किचन में सभी मेहमानों के लिए पूड़ियां तल
रही थीं। निक्को के बारे में सोच-सोच कर
उनकी आंखों से अश्रु की धारा बह रही थी। निक्को की
ताई जी को इधर आते हुए निगाह उमा पर पड़ी तो उसने
पूछा, ‘क्या बात है उमा, तुम रो क्यों रही
हो?’
‘कुछ नहीं दीदी।’ अपने
आंसुओं को पोंछते हुए उमा
ने कहा। 
‘अरे उमा, तुम
बेकार में परेशान हो
रही हो, अपनी
निक्को बहुत
समझदार है,
सब संभाल
लेगी।...वैसे भी
उसका ससुराल भी तो पास में ही है,
जब भी मन करे बेटी से मिलने चली जाया
करना।’
‘नहीं दीदी, जब निक्को दो दिन के
लिए चली जाती है, तब ये घर
काटने को दौड़ता है और अब
तो...।’ यह कह वह फिर से सुबकते
हुए पूड़ियां तलने लगीं। तभी उमा ने
देखा कि सामने से दीनानाथ आ रहे हैं।
उन्हें देखते ही घबराते हुए उमा ने जल्दी
से अपनी साड़ी के पल्लू से अपने आंसू
पोंछे कि कहीं वह देख न लें। 
दीनानाथ ने उमा को पहले ही
हिदायत दे दी थी कि रोना-
धोना नहीं होना चाहिए।
दीनानाथ किचन की
तरफ देखते हुए
बाकी तैयारियों
का मुआयना
लेने
लगे। उमा को राहत हुई कि निक्को के पापा ने उन्हें रोते हुए नहीं देखा।
कुछ ही देर बाद लड़के वाले आए। निक्को की सगाई की रस्म शाम तक चली। इसके बाद सभी
मेहमान एक-एक कर जाने लगे। धीरे-धीरे पूरा घर खाली हो गया। जिस घर में सुबह से
कोलाहल, लजीज व्यंजनों की खूशबू, गीत-गाने, बच्चों का हुड़दंग मचा था, वह घर अब सुन-
सान सा लग रहा था।
उमा को याद आया कि दीनानाथ ने आज तो अपनी दवा ही नहीं ली। पूरे घर में उन्होंने निक्को के
पापा को ढूंढ़ा, लेकिन वह नहीं मिले। निक्को दादी के कमरे में अपनी सहेलियों के साथ बिजी थी।
उसे भी नहीं पता था कि पापा कहां हैं। उमा की घबराहट तेज हो गई। आखिर प्रोग्राम के बाद वह
कहां चले गए बिना बताए। उन्हें ढूंढ़ते हुए उमा निक्को के कमरे में पहुंच गई, जहां दीनानाथ
निक्को की बचपन के गुड्डे-गुड़ियां को अपने सीने से लगाए, रोए जा रहे थे। यह देख निक्को की
मां परेशान हो गई। उन्होंने हिम्मत करते हुए पूछा, ‘क्या हुआ आप निक्को के कमरे में रो क्यों रहे
हैं? निक्को के ससुराल वालों ने कुछ कह दिया क्या?...आप तो ऐसे नहीं हैं। जरूर कोई बात है।
मां जी को भेजूं क्यां?’ डरते हुए उमा ने दीनानाथ से कहा। 
बड़ी-बड़ी मूंछें, लंबा कद, हमेशा तनी रहने वाली भृकुटी और माथे पर लाल टीके के साथ शेर
ेकी सी दहाड़ वाली आवाज। यही थी दीननाथ की पूरे गांव में पहचान। उनकी मां के अलावा
किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि वह दीनानाथ से कुछ पूछ या बता सकें। इन तीस सालों में उमा
को भी जो कहना होता था वह अपनी सास से ही कहलवाती थीं। कभी-कभी ही बात होती
उनकी।
उमा का हाथ पकड़कर रोकते हुए दीनानाथ ने कहा, ‘नहीं निक्को की मां। किसी को बुलाने की
जरूरत नहीं, बस तुम बैठ जाओ कुछ कहना है निक्को के बारे में।’ अपने आंसुओं को पोंछते हुए
दीनानाथ ने कहा, ‘उमा, लड़कियां पराई क्यों होती हैं। उनको भी तो मां-बाप ही जन्म देते हैं,
पालन-पोषण करते हैं फिर क्यों?’
‘निक्को के पापा, आप कैसी बात कर रहे हैं।...आप तो हमेशा से यही कहते आ रहे हैं कि यह
दुनिया का दस्तूर है कि बेटियां पराई होती हैं। फिर आज ऐसी बात क्यों?’
‘पता नहीं क्यों उमा? आज जब निक्को की सगाई हो रही थी, उसके ससुराल वाले उसे आशीष
दे रहे थे। तबसे उसके लिए बहुत तड़प हो रही है। ऐसा लग रहा है   जैसे कोई मेरी आत्मा को
छीनने वाला है। मेरी छाती फट-सी रही है, मेरा बिल्कुल मन नहीं कर रहा है कि उसे ससुराल
भेजूं। बहुत घुटन सी हो रही है, वह यहां भी तो रह सकती है।’ यह कहते-कहते उनका गला फिर
से रुंध गया। 
कुछ पल के लिए वह खामोश होकर शून्य में देखने लगे। थोड़ी देर बाद खुद से ही बड़बड़ाने
लगे, ‘जिसे नाजों से पाला अपने हाथों से खिलाया, उसे किसी दूसरे के हाथों कैसे सौंप दूं? पता
नहीं बेटियों को विदा करने की रीति किसने बनाई है।’ 
‘कैसी बात करते हैं आप? आप तो कभी नहीं रोते...फिर आज क्यों?’ उमा ने फिर कहा, ‘मुझे
नहीं पता था कि जिस इंसान को मैं पत्थर दिल और कड़क मिजाज वाला समझती थी, वह अपनी
बेटी के लिए इस कदर भावुक हैं।...मैं तो हमेशा रो लेती थी निक्को की शादी की बात होने पर,
पर आज पता चला कि आपको भी तकलीफ होती है, बस आपने कभी जाहिर नहीं किया।’
अपने आपको संभालते और आंसुओं को पोंछते हुए दीनानाथ ने कहा, ‘मैं भी इंसान हूं। कभी
हंसता नहीं हूं, इसका मतलब यह थोड़े ही है कि अपनी निक्को को प्यार नहीं करता या मेरे सीने
में दिल नहीं है।’ अचानक से उमा का हाथ तेजी से पकड़ते हुए दीनानाथ ने कहा, ‘पता है तुम्हें
उमा! यह गुड्डे-गुड़ियों को मैं अपने सीने से क्यूं लगाए हूं?’ 
‘नहीं आप ही बताएं।’ 
‘अपनी निक्को जब छोटी थी तो मैं डांटकर उससे कह देता था कि पढ़ो जाकर। फिर जब मैं
यह देखने आता कि वह पढ़ रही है या नहीं तो खिड़की से देखता था कि निक्को इन
गुड्डे-गुड़ियों से ही हमेशा बात करती थी। उनसे बातें करती और कहती थी कि जब मेरी
और तुम्हारी शादी होगी तब पापा निश्चित ही बहुत रोएंगे। क्योंकि दादी कहती हैं कि
जो ज्यादा डांटता है, वही सबसे ज्यादा प्यार करता है। कितनी समझदार थी न अपनी
निक्को। मैं अपनी निक्को को कहीं नहीं भेजूंगा, यहीं रहेगी वह मेरे पास।’ यह कहतेकहते दीनानाथ फिर से रोने लगे। जैसे बीस वर्ष का सारा प्यार जो उन्होंने अपने कड़क
मिजाज के कारण दबा रखा था, आज आंसुओं के रूप में निकल आया हो। इतने ही में
निक्को आ गई और देखते ही पूछने लगी, पापा! आप रो रहे हैं, निक्को की आवाज
सुनते ही दीनानाथ ने तुरंत उसके गुड्डे-गुड़ियों को अपने सीने से हटा दिया और
अपने आंसुओं को छिपाते हुए कहा, ‘नहीं। बेटा ऐसा कुछ भी नहीं, तुम
आराम करो।’
यह कह जैसे ही वह निक्को के कमरे से जाने लगे, निक्को ने दीनानाथ
का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘पापा! मैंने आपकी और मां की सारी
बात सुन ली हैं। आपकी निक्को कैसे पराई हो सकती है। मैं पराई नहीं
हूं, मैं तो अपने पापा की हूं और हमेशा रहूंगी। मैं भी आपके पास ही
रहना चाहती हूं, भले ही आपने कभी अपने प्यार को नहीं जताया,
लेकिन आपकी आंखों में हमेशा अपने लिए प्यार देखा है।’ यह कहते
ही निक्को की आंखों में भी आंसू आ गए। 
बेटी की बात सुन दीनानाथ और भावुक हो उठे और उसे अपने सीने से
लगाते हुए फिर से अश्रुधारा में डूब गए।

Saturday 20 April 2013

nisabd hai sab



दिल्ली रेप वालों की  ...
डरी और सहमी, दर्द से भरी, खुद को कोसती अब यही रह गई है,महिलाओं की पहचान। अब कहेंगे कि वो डरी सहमी क्यों है? उन्होंने तो पहले से बहुत तरक्की कर ली है, हर क्षेत्र में लड़को हरा रही हैं। वो भी देश के दिल दिल्ली में तो महिलाओं के लिए बहुत ही मौके हैं आगे बढ़ने और तरक्की हासिल करने के।
ज्यादा जोर देने की जरूरत नहीं है, जिस दिल्ली को पूरी दुनिया देश के दिल और तरक्की के नाम से जानती है वह अब केवल रेप वालों की हो गई है। आपको पता ही होगा, वहां कि मुख्यमंत्री भी एक महिला ही हैं,जिनका नाम शीला दीक्षित। इसके अलावा एक और पहचान बताऊं आपको वहां महिलाओं के साथ रेप होना बहुत ही आम है फिर चाहें वह पांच साल की बच्ची हो, 30 साल की युवा हो या 55 साल की विधवा या वृद्ध। ये हमारी दिल्ली की नई पहचान है। 
लोगों की सोच में घुन नामक कीड़ा लग चुका है, यह ऐसा कीड़ा होता है जो धीरे-धीरे पूरी लकड़ी को बर्बाद कर देता है। उसी तरह यहां के आलाधिकारियों, नेताओं और नागरिकों की सोच और संवेदनाओं में घुन लग गया है।
जब जॉब के लिए पहली बार घर से बाहर निकली, तो पापा ने कहा बेटा, दिल्ली मत जाओ वहां लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वह कहना चाहते थे कि दिल्ली को छोड़कर बाकी जगह मेरे लिए सुरक्षित है। वह कहना चाहते थे कि कुछ हद तक तो दिल्ली से बेहतर है। 
पिछले साल 16 दिसबंर की रात मानवीयता की सारी हदों को
पार कर गैंगरेप की शिकार पीड़िता के लिए जिस तरह पूरा देश उबला था। वही उबाल देश में फिर दिख रहा है, इस बार एक छोटी सी पांच साल की बच्ची इसका कारण है। फिर वही पुलिस से बहस, आंदोलन, भाषणों, बयान,लेख, कविताएं, ब्लॉग और उन पर कमेंट के साथ ही  झूठी कार्यवाही और भरोसों का दौर चालू होगा। कुछ दिन बाद फिर सब शांत और अपने काम में हम सब बिजी हो जाएंगे।
बच्ची के साथ जो हुआ उससे सभी वाकिफ हैं, बार-बार बताने की जरूरत नहीं समझती। लेकिन एक बात बहुत तकलीफ देती है कि जो महिलाएं जिम्मेदार पदों पर बैठी हैं, वह भी गैरजिम्मेदाराना व्यवहार करती हैं। शीला जी कहती हैं कि लड़कियां रात में घर से बाहर न निकला करें या फिर कार्यवाही की जाएगी यह कहकर खानापूर्ति कर लेती हैं। वहीं दूसरी तरफ महिला आयोग की अध्यक्ष ममता जी कहती हैं आज छुट्टी का दिन है कल कुछ होगा।
जब आपके लिए एक बच्ची की जिंदगी से ज्यादा आपकी छुट्टी मायने रखती है। तो आप महिला आयोग जैसे जिम्मेदार पद पर क्यों हैं? एक महिला होने के नाते कुछ तो आपमें संवेदना होगी और पता होगा कि आप इस पद पर क्यों हैं? जब आप ही ऐसा व्यावहार करेंगी तो बाकी पुरूष कर्मियों से जो एक नेता, पुलिस आदि पदों पर आसीन हैं उनसे क्या उम्मीद की जाएं। पूरा तंत्र ही बीमार हो चुका है। बड़ी शर्म आती है कि रेप करने वाले की मानसिकता इतनी आमानवीय कैसे हो सकती है। एक बच्ची जिसे प्यार और दुलार की जरूरत है , वह इस समय जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष कर रही है। जहां दिल्ली में हर दिन सात से आठ केस सुनने या पढ़ने को मिल जाते हैं, जैसे लगता है अब तो दिल्ली रेप वालों की हो गई है।
अकसर मैं अपने आस-पास के लोगों से यही सुनती हूं , कि भई लड़कियों को दिल्ली में नहीं रहना चाहिए। पता नहीं कब वह शैतान हाथों का शिकार हो जाए। और जो लड़कियां सुरक्षित हैं, उनका और परिवार हर दिन और हर पल को शुक्रिया अदा करते हैं।
इस तरह की घटनाओं को पढ़कर आत्मा विचलित होने लगती है। अब खुद ही कानून अपने हाथ में लेना होगा और नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाना होगा। कानून को हाथ में लेना गलत है, लेकिन जब घी सीधी उंगली से निकले, तो उंगली टेढी कर लेनी चाहिए।
सबसे बड़ी बात एक नागरिक होने के नाते सभी पार्टियों को वोट देना बंद कर दें, कम से कम इतना हम कर ही सकते हैं। क्योंकि सारे नेता एक जैसे हैं, केवल बड़ी बड़ी बातें करना, झूठे वादे करना, गैरजिम्मेदाराना बयान देना और भ्रष्टाचार में लिप्त होना यही इनकी असली और सच्ची पहचान है।
अगर महिलाओं को सुरक्षित रखना है, तो पहले ऐसे मानसिक रोगियों की पहचान का तरीका पता होना जरूरी है। ताकि उन्हें सही जगह पहुंचाया जा सके। तभी खत्म होगा यह आमानवीय, आप्राकृतिक और जघन्य घटनाएं। तभी थमेंगे बहू-बेटियों के आंसूं और दर्द। 


Wednesday 17 April 2013

chhalkte ahsas


  लोगों के बीच में आंखे चुराते हुए
मुझे देखना और जब मैं मुस्कराऊं
तो आंखों की चमक
गालों की लालिमा, कह जाती है 
तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
मुझे देखते हुए जब लोगों ने शुरू की खिंचाई  ,
तो बड़ी बहादुरी से आपका यह कहना
हां, मैं देख रहा था और फिर सबके बीच
बात करते हुए निहारना और मुस्कराना
 छू लेता है मेरे अंर्तमन को 
और शर्म से कर देता है मेरे चेहरे 
को सुर्ख लाल
फिर दिल यही कहता है
तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
प्यार का इजहार नहीं करते
लेकिन यह कहना कि जल्दी आना
और जाते हुए मुझे बेसब्री से देखना
यह कहना कि अपना ख्याल रखना
कह जाता है तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है......
chhalkte ahsas
प्यार का  सुरुर और देखते हुए खुद के
यूं ही अकेले मुस्कराना
 जज्बतों को छिपा लेना
पूछने पर कुछ नहीं के साथ
फिर मुस्कराना कह जाता है
तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
उनींदी आंखों के साथ मेरा
हाथ पकड़कर, खुद से कहना
तुम मेरी जरूरत हो
तुम्हारे बिना नहीं रह सकता 
तब दिल कह  जाता है तुम्हें प्यार है
तुम्हारी जरूरत है
तुम हो, तो ये दुनिया और हम हैं
तुम नहीं तो कुछ नहीं 
बेजान सी लगती है दुनियाा
शायद दिल  और सांसों को हो गई है 
तुम्हारी आदत है
लब्जो से न सही, लेकिन
तुम्हारे पास न होने पर
एहसास होता है
हमें तुमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
तुम हो पास, 
तो कांटों में भी फूल नजर
आते हैं, पतझड़ में भी
बहार आ जाती है
बिन मौसम बरसात हो जाती है
दिल झूम-झूम कर कहता है
तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
हंसी मजाक में ही मरने की बात सुन
लब्ज रूक  जाती है और सांसे थम जाती हैं
फिर थमें हुए लब्त्जों के साथ
यह कहना कि अब यह दुबारा न कहना
कह जाता कि तुम्हें मुझसे प्यार है....

Monday 4 February 2013

पिया विरहा की बेला



  सिर्फ आपके लिए
डियर संदीप,
कु छ मौसम का असर है और कुछ रात की खुमारी का 
कुछ मिलने और इंतजार की घड़ी की तसव्वुर का असर है
कि आपकी बातें रह-रह के कभी मुझे हंसा जाती हैं, 
तो कभी यूं ही अकेले मुस्कराने को कह जाती है
लोग मुझे देखकर हंसते है कि मैं हंस क्यों रही हूं
हंसते हुए लोगों से जब नजरें मिली
 तो यह दिलनशी कुछ कह न सकी
 बस आंखों में शर्म और लब में हसी लिए
 कहती है कुछ नहीं बस ऐसे ही...

जिंदगी कुछ अच्छी सी लगने लगी है
 इनमें कुछ ऐसे रंग भी आ गए 
जो मेरी रूह को बेचैन करती है, तो साथ ही
 खुशी भी दे जाती, कोई पूछता क्या हुआ,
 तो जुबां से यही नहीं निकलता बस ऐसे ही
आपके पैगाम का जब बेसबरी से इंतजार करती है 
और वह नहीं आता है, तो एक पल दिल करता है
अपने ख्वाबों के शहंशाह से अभी लडूं
बस यह सोच कर दिल फिर से मचल उठता है
 कि उनसे कहूंगी क्या...
 सिर्फ और सिर्फ आपकी 
शिखा