Wednesday 22 May 2013

meri dunia mere papa


 मैं पराई नहीं, मैं तो आपकी हूं पापा...
i love u miss u dad

 ‘अरे! सुनती हो निक्को की मम्मी, लड़के वालों ने अपनी निक्को को पसंद कर लिया है। कितना
परेशान से थे दो साल से। चलो भगवान ने हमारी सुन ली।’ घर के बड़े दरवाजे से दीनानाथ तेज
कदमों और चेहरे पर ढेर सारी खुशियों को समेटे बाहर से ही यह खुशखबरी सुनाते हुए आए।
क्या बात है निक्को के पापा इतना काहे खुश हो, इतने खुश तो पहले कभी न देखा था। पता नहीं
क्या आप बाहर से बोलते हुए आए, नाराज न हो तो दोबारा बताइए क्या बता रहे थे आप? हैरान
होते हुए निक्को यानी निकिता की मां उमा ने पूछा।
अरे उमा! तुम मुझे पागल समझती हो...इस बात पर क्यों नाराज होऊंगा, एक नहीं दस बार पूछो,
आज मैं बहुत खुश हंू। अच्छा ऐसे घूर-घूर के न देखो।...दरअसल अपनी निक्को को बिजनौर
वालों ने पसंद कर लिया है। क्या बात कर रहे हो निक्को के पापा, बड़ी अच्छी खबर सुनाई
आपने। अपनी निक्को वहां बहुत खुश रहेगी, है कि नहीं। हामी भराते हुए निक्को की मां ने पूछा।
दीनानाथ ने भी कहा, ‘हां वो तो है।’ तभी निक्को आॅफिस से आ गई, उसे देखते ही दीनानाथ ने
उसे गले से लगा लिया और उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। निक्को ने परेशान होते हुए
पूछा, ‘क्या हुआ पापा, आप रो क्यों रहे हैं?’ 
अपनी भावनाओं को छिपाते हुए उन्होंने कहा, ‘कुछ नहीं, तुम्हारा रिश्ता तय हो गया है। तैयारी
करनी है, तुम ऊपर जाओ।’ 
निक्को और उसकी मां में इतना साहस नहीं था कि कोई बात दीनानाथ से दोबारा पूछ सकें। सभी
अपने-अपने काम में लग गए। उनकी आवाज से पूरा घर जो कांप जाता था। शादी के तीस सालों
बाद उमा ने अपने पति को खुश होते हुए देखा था।
खैर दीनानाथ ने यह खबर फोन से अपने सभी रिश्तेदारों को देना शुरू कर दी, कि अगले हफ्ते
निक्को की सगाई है। आना जरूर है आप सबको। घर में निक्को की सगाई की तैयारियां चलने
लगीं। हर तरफ हंसी-ठिठोली, गीत-संगीत का माहौल। 
निक्को की मां किचन में सभी मेहमानों के लिए पूड़ियां तल
रही थीं। निक्को के बारे में सोच-सोच कर
उनकी आंखों से अश्रु की धारा बह रही थी। निक्को की
ताई जी को इधर आते हुए निगाह उमा पर पड़ी तो उसने
पूछा, ‘क्या बात है उमा, तुम रो क्यों रही
हो?’
‘कुछ नहीं दीदी।’ अपने
आंसुओं को पोंछते हुए उमा
ने कहा। 
‘अरे उमा, तुम
बेकार में परेशान हो
रही हो, अपनी
निक्को बहुत
समझदार है,
सब संभाल
लेगी।...वैसे भी
उसका ससुराल भी तो पास में ही है,
जब भी मन करे बेटी से मिलने चली जाया
करना।’
‘नहीं दीदी, जब निक्को दो दिन के
लिए चली जाती है, तब ये घर
काटने को दौड़ता है और अब
तो...।’ यह कह वह फिर से सुबकते
हुए पूड़ियां तलने लगीं। तभी उमा ने
देखा कि सामने से दीनानाथ आ रहे हैं।
उन्हें देखते ही घबराते हुए उमा ने जल्दी
से अपनी साड़ी के पल्लू से अपने आंसू
पोंछे कि कहीं वह देख न लें। 
दीनानाथ ने उमा को पहले ही
हिदायत दे दी थी कि रोना-
धोना नहीं होना चाहिए।
दीनानाथ किचन की
तरफ देखते हुए
बाकी तैयारियों
का मुआयना
लेने
लगे। उमा को राहत हुई कि निक्को के पापा ने उन्हें रोते हुए नहीं देखा।
कुछ ही देर बाद लड़के वाले आए। निक्को की सगाई की रस्म शाम तक चली। इसके बाद सभी
मेहमान एक-एक कर जाने लगे। धीरे-धीरे पूरा घर खाली हो गया। जिस घर में सुबह से
कोलाहल, लजीज व्यंजनों की खूशबू, गीत-गाने, बच्चों का हुड़दंग मचा था, वह घर अब सुन-
सान सा लग रहा था।
उमा को याद आया कि दीनानाथ ने आज तो अपनी दवा ही नहीं ली। पूरे घर में उन्होंने निक्को के
पापा को ढूंढ़ा, लेकिन वह नहीं मिले। निक्को दादी के कमरे में अपनी सहेलियों के साथ बिजी थी।
उसे भी नहीं पता था कि पापा कहां हैं। उमा की घबराहट तेज हो गई। आखिर प्रोग्राम के बाद वह
कहां चले गए बिना बताए। उन्हें ढूंढ़ते हुए उमा निक्को के कमरे में पहुंच गई, जहां दीनानाथ
निक्को की बचपन के गुड्डे-गुड़ियां को अपने सीने से लगाए, रोए जा रहे थे। यह देख निक्को की
मां परेशान हो गई। उन्होंने हिम्मत करते हुए पूछा, ‘क्या हुआ आप निक्को के कमरे में रो क्यों रहे
हैं? निक्को के ससुराल वालों ने कुछ कह दिया क्या?...आप तो ऐसे नहीं हैं। जरूर कोई बात है।
मां जी को भेजूं क्यां?’ डरते हुए उमा ने दीनानाथ से कहा। 
बड़ी-बड़ी मूंछें, लंबा कद, हमेशा तनी रहने वाली भृकुटी और माथे पर लाल टीके के साथ शेर
ेकी सी दहाड़ वाली आवाज। यही थी दीननाथ की पूरे गांव में पहचान। उनकी मां के अलावा
किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि वह दीनानाथ से कुछ पूछ या बता सकें। इन तीस सालों में उमा
को भी जो कहना होता था वह अपनी सास से ही कहलवाती थीं। कभी-कभी ही बात होती
उनकी।
उमा का हाथ पकड़कर रोकते हुए दीनानाथ ने कहा, ‘नहीं निक्को की मां। किसी को बुलाने की
जरूरत नहीं, बस तुम बैठ जाओ कुछ कहना है निक्को के बारे में।’ अपने आंसुओं को पोंछते हुए
दीनानाथ ने कहा, ‘उमा, लड़कियां पराई क्यों होती हैं। उनको भी तो मां-बाप ही जन्म देते हैं,
पालन-पोषण करते हैं फिर क्यों?’
‘निक्को के पापा, आप कैसी बात कर रहे हैं।...आप तो हमेशा से यही कहते आ रहे हैं कि यह
दुनिया का दस्तूर है कि बेटियां पराई होती हैं। फिर आज ऐसी बात क्यों?’
‘पता नहीं क्यों उमा? आज जब निक्को की सगाई हो रही थी, उसके ससुराल वाले उसे आशीष
दे रहे थे। तबसे उसके लिए बहुत तड़प हो रही है। ऐसा लग रहा है   जैसे कोई मेरी आत्मा को
छीनने वाला है। मेरी छाती फट-सी रही है, मेरा बिल्कुल मन नहीं कर रहा है कि उसे ससुराल
भेजूं। बहुत घुटन सी हो रही है, वह यहां भी तो रह सकती है।’ यह कहते-कहते उनका गला फिर
से रुंध गया। 
कुछ पल के लिए वह खामोश होकर शून्य में देखने लगे। थोड़ी देर बाद खुद से ही बड़बड़ाने
लगे, ‘जिसे नाजों से पाला अपने हाथों से खिलाया, उसे किसी दूसरे के हाथों कैसे सौंप दूं? पता
नहीं बेटियों को विदा करने की रीति किसने बनाई है।’ 
‘कैसी बात करते हैं आप? आप तो कभी नहीं रोते...फिर आज क्यों?’ उमा ने फिर कहा, ‘मुझे
नहीं पता था कि जिस इंसान को मैं पत्थर दिल और कड़क मिजाज वाला समझती थी, वह अपनी
बेटी के लिए इस कदर भावुक हैं।...मैं तो हमेशा रो लेती थी निक्को की शादी की बात होने पर,
पर आज पता चला कि आपको भी तकलीफ होती है, बस आपने कभी जाहिर नहीं किया।’
अपने आपको संभालते और आंसुओं को पोंछते हुए दीनानाथ ने कहा, ‘मैं भी इंसान हूं। कभी
हंसता नहीं हूं, इसका मतलब यह थोड़े ही है कि अपनी निक्को को प्यार नहीं करता या मेरे सीने
में दिल नहीं है।’ अचानक से उमा का हाथ तेजी से पकड़ते हुए दीनानाथ ने कहा, ‘पता है तुम्हें
उमा! यह गुड्डे-गुड़ियों को मैं अपने सीने से क्यूं लगाए हूं?’ 
‘नहीं आप ही बताएं।’ 
‘अपनी निक्को जब छोटी थी तो मैं डांटकर उससे कह देता था कि पढ़ो जाकर। फिर जब मैं
यह देखने आता कि वह पढ़ रही है या नहीं तो खिड़की से देखता था कि निक्को इन
गुड्डे-गुड़ियों से ही हमेशा बात करती थी। उनसे बातें करती और कहती थी कि जब मेरी
और तुम्हारी शादी होगी तब पापा निश्चित ही बहुत रोएंगे। क्योंकि दादी कहती हैं कि
जो ज्यादा डांटता है, वही सबसे ज्यादा प्यार करता है। कितनी समझदार थी न अपनी
निक्को। मैं अपनी निक्को को कहीं नहीं भेजूंगा, यहीं रहेगी वह मेरे पास।’ यह कहतेकहते दीनानाथ फिर से रोने लगे। जैसे बीस वर्ष का सारा प्यार जो उन्होंने अपने कड़क
मिजाज के कारण दबा रखा था, आज आंसुओं के रूप में निकल आया हो। इतने ही में
निक्को आ गई और देखते ही पूछने लगी, पापा! आप रो रहे हैं, निक्को की आवाज
सुनते ही दीनानाथ ने तुरंत उसके गुड्डे-गुड़ियों को अपने सीने से हटा दिया और
अपने आंसुओं को छिपाते हुए कहा, ‘नहीं। बेटा ऐसा कुछ भी नहीं, तुम
आराम करो।’
यह कह जैसे ही वह निक्को के कमरे से जाने लगे, निक्को ने दीनानाथ
का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘पापा! मैंने आपकी और मां की सारी
बात सुन ली हैं। आपकी निक्को कैसे पराई हो सकती है। मैं पराई नहीं
हूं, मैं तो अपने पापा की हूं और हमेशा रहूंगी। मैं भी आपके पास ही
रहना चाहती हूं, भले ही आपने कभी अपने प्यार को नहीं जताया,
लेकिन आपकी आंखों में हमेशा अपने लिए प्यार देखा है।’ यह कहते
ही निक्को की आंखों में भी आंसू आ गए। 
बेटी की बात सुन दीनानाथ और भावुक हो उठे और उसे अपने सीने से
लगाते हुए फिर से अश्रुधारा में डूब गए।

Saturday 20 April 2013

nisabd hai sab



दिल्ली रेप वालों की  ...
डरी और सहमी, दर्द से भरी, खुद को कोसती अब यही रह गई है,महिलाओं की पहचान। अब कहेंगे कि वो डरी सहमी क्यों है? उन्होंने तो पहले से बहुत तरक्की कर ली है, हर क्षेत्र में लड़को हरा रही हैं। वो भी देश के दिल दिल्ली में तो महिलाओं के लिए बहुत ही मौके हैं आगे बढ़ने और तरक्की हासिल करने के।
ज्यादा जोर देने की जरूरत नहीं है, जिस दिल्ली को पूरी दुनिया देश के दिल और तरक्की के नाम से जानती है वह अब केवल रेप वालों की हो गई है। आपको पता ही होगा, वहां कि मुख्यमंत्री भी एक महिला ही हैं,जिनका नाम शीला दीक्षित। इसके अलावा एक और पहचान बताऊं आपको वहां महिलाओं के साथ रेप होना बहुत ही आम है फिर चाहें वह पांच साल की बच्ची हो, 30 साल की युवा हो या 55 साल की विधवा या वृद्ध। ये हमारी दिल्ली की नई पहचान है। 
लोगों की सोच में घुन नामक कीड़ा लग चुका है, यह ऐसा कीड़ा होता है जो धीरे-धीरे पूरी लकड़ी को बर्बाद कर देता है। उसी तरह यहां के आलाधिकारियों, नेताओं और नागरिकों की सोच और संवेदनाओं में घुन लग गया है।
जब जॉब के लिए पहली बार घर से बाहर निकली, तो पापा ने कहा बेटा, दिल्ली मत जाओ वहां लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वह कहना चाहते थे कि दिल्ली को छोड़कर बाकी जगह मेरे लिए सुरक्षित है। वह कहना चाहते थे कि कुछ हद तक तो दिल्ली से बेहतर है। 
पिछले साल 16 दिसबंर की रात मानवीयता की सारी हदों को
पार कर गैंगरेप की शिकार पीड़िता के लिए जिस तरह पूरा देश उबला था। वही उबाल देश में फिर दिख रहा है, इस बार एक छोटी सी पांच साल की बच्ची इसका कारण है। फिर वही पुलिस से बहस, आंदोलन, भाषणों, बयान,लेख, कविताएं, ब्लॉग और उन पर कमेंट के साथ ही  झूठी कार्यवाही और भरोसों का दौर चालू होगा। कुछ दिन बाद फिर सब शांत और अपने काम में हम सब बिजी हो जाएंगे।
बच्ची के साथ जो हुआ उससे सभी वाकिफ हैं, बार-बार बताने की जरूरत नहीं समझती। लेकिन एक बात बहुत तकलीफ देती है कि जो महिलाएं जिम्मेदार पदों पर बैठी हैं, वह भी गैरजिम्मेदाराना व्यवहार करती हैं। शीला जी कहती हैं कि लड़कियां रात में घर से बाहर न निकला करें या फिर कार्यवाही की जाएगी यह कहकर खानापूर्ति कर लेती हैं। वहीं दूसरी तरफ महिला आयोग की अध्यक्ष ममता जी कहती हैं आज छुट्टी का दिन है कल कुछ होगा।
जब आपके लिए एक बच्ची की जिंदगी से ज्यादा आपकी छुट्टी मायने रखती है। तो आप महिला आयोग जैसे जिम्मेदार पद पर क्यों हैं? एक महिला होने के नाते कुछ तो आपमें संवेदना होगी और पता होगा कि आप इस पद पर क्यों हैं? जब आप ही ऐसा व्यावहार करेंगी तो बाकी पुरूष कर्मियों से जो एक नेता, पुलिस आदि पदों पर आसीन हैं उनसे क्या उम्मीद की जाएं। पूरा तंत्र ही बीमार हो चुका है। बड़ी शर्म आती है कि रेप करने वाले की मानसिकता इतनी आमानवीय कैसे हो सकती है। एक बच्ची जिसे प्यार और दुलार की जरूरत है , वह इस समय जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष कर रही है। जहां दिल्ली में हर दिन सात से आठ केस सुनने या पढ़ने को मिल जाते हैं, जैसे लगता है अब तो दिल्ली रेप वालों की हो गई है।
अकसर मैं अपने आस-पास के लोगों से यही सुनती हूं , कि भई लड़कियों को दिल्ली में नहीं रहना चाहिए। पता नहीं कब वह शैतान हाथों का शिकार हो जाए। और जो लड़कियां सुरक्षित हैं, उनका और परिवार हर दिन और हर पल को शुक्रिया अदा करते हैं।
इस तरह की घटनाओं को पढ़कर आत्मा विचलित होने लगती है। अब खुद ही कानून अपने हाथ में लेना होगा और नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाना होगा। कानून को हाथ में लेना गलत है, लेकिन जब घी सीधी उंगली से निकले, तो उंगली टेढी कर लेनी चाहिए।
सबसे बड़ी बात एक नागरिक होने के नाते सभी पार्टियों को वोट देना बंद कर दें, कम से कम इतना हम कर ही सकते हैं। क्योंकि सारे नेता एक जैसे हैं, केवल बड़ी बड़ी बातें करना, झूठे वादे करना, गैरजिम्मेदाराना बयान देना और भ्रष्टाचार में लिप्त होना यही इनकी असली और सच्ची पहचान है।
अगर महिलाओं को सुरक्षित रखना है, तो पहले ऐसे मानसिक रोगियों की पहचान का तरीका पता होना जरूरी है। ताकि उन्हें सही जगह पहुंचाया जा सके। तभी खत्म होगा यह आमानवीय, आप्राकृतिक और जघन्य घटनाएं। तभी थमेंगे बहू-बेटियों के आंसूं और दर्द। 


Wednesday 17 April 2013

chhalkte ahsas


  लोगों के बीच में आंखे चुराते हुए
मुझे देखना और जब मैं मुस्कराऊं
तो आंखों की चमक
गालों की लालिमा, कह जाती है 
तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
मुझे देखते हुए जब लोगों ने शुरू की खिंचाई  ,
तो बड़ी बहादुरी से आपका यह कहना
हां, मैं देख रहा था और फिर सबके बीच
बात करते हुए निहारना और मुस्कराना
 छू लेता है मेरे अंर्तमन को 
और शर्म से कर देता है मेरे चेहरे 
को सुर्ख लाल
फिर दिल यही कहता है
तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
प्यार का इजहार नहीं करते
लेकिन यह कहना कि जल्दी आना
और जाते हुए मुझे बेसब्री से देखना
यह कहना कि अपना ख्याल रखना
कह जाता है तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है......
chhalkte ahsas
प्यार का  सुरुर और देखते हुए खुद के
यूं ही अकेले मुस्कराना
 जज्बतों को छिपा लेना
पूछने पर कुछ नहीं के साथ
फिर मुस्कराना कह जाता है
तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
उनींदी आंखों के साथ मेरा
हाथ पकड़कर, खुद से कहना
तुम मेरी जरूरत हो
तुम्हारे बिना नहीं रह सकता 
तब दिल कह  जाता है तुम्हें प्यार है
तुम्हारी जरूरत है
तुम हो, तो ये दुनिया और हम हैं
तुम नहीं तो कुछ नहीं 
बेजान सी लगती है दुनियाा
शायद दिल  और सांसों को हो गई है 
तुम्हारी आदत है
लब्जो से न सही, लेकिन
तुम्हारे पास न होने पर
एहसास होता है
हमें तुमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
तुम हो पास, 
तो कांटों में भी फूल नजर
आते हैं, पतझड़ में भी
बहार आ जाती है
बिन मौसम बरसात हो जाती है
दिल झूम-झूम कर कहता है
तुम्हें हमसे प्यार है
तुम्हारी जरूरत है...
हंसी मजाक में ही मरने की बात सुन
लब्ज रूक  जाती है और सांसे थम जाती हैं
फिर थमें हुए लब्त्जों के साथ
यह कहना कि अब यह दुबारा न कहना
कह जाता कि तुम्हें मुझसे प्यार है....

Monday 4 February 2013

पिया विरहा की बेला



  सिर्फ आपके लिए
डियर संदीप,
कु छ मौसम का असर है और कुछ रात की खुमारी का 
कुछ मिलने और इंतजार की घड़ी की तसव्वुर का असर है
कि आपकी बातें रह-रह के कभी मुझे हंसा जाती हैं, 
तो कभी यूं ही अकेले मुस्कराने को कह जाती है
लोग मुझे देखकर हंसते है कि मैं हंस क्यों रही हूं
हंसते हुए लोगों से जब नजरें मिली
 तो यह दिलनशी कुछ कह न सकी
 बस आंखों में शर्म और लब में हसी लिए
 कहती है कुछ नहीं बस ऐसे ही...

जिंदगी कुछ अच्छी सी लगने लगी है
 इनमें कुछ ऐसे रंग भी आ गए 
जो मेरी रूह को बेचैन करती है, तो साथ ही
 खुशी भी दे जाती, कोई पूछता क्या हुआ,
 तो जुबां से यही नहीं निकलता बस ऐसे ही
आपके पैगाम का जब बेसबरी से इंतजार करती है 
और वह नहीं आता है, तो एक पल दिल करता है
अपने ख्वाबों के शहंशाह से अभी लडूं
बस यह सोच कर दिल फिर से मचल उठता है
 कि उनसे कहूंगी क्या...
 सिर्फ और सिर्फ आपकी 
शिखा 


Friday 7 December 2012

beiman riste.....



  कितनी अजीब है रिश्तों की कहानी...
ऐसी है बेईमान रिश्तों की कहानी, 
ताउम्र बंधन का दंभ भरने वाले रिश्ते, 
एक ही पल में बदल देते हैं अपना रंग और रूप
 कितनी अजीब है रिश्तों....।
 जिन मां-बाप ने पाला-पोषा बेटी को, 
विवाह की बेला आते ही क्यों कम हो जाता है, 
उनका हक और अधिकार
कितनी अजीब है रिश्तों ....।
जिस आंगना जीवन के बीस बसंत देखे, 
वही आंगना अब हो गया बेगाना,
प्यारी बिटिया से कह रहा आंगना, 
अब तुम न रही हमारी, बदल गया है तुमसे मेरा रिश्ता,
 कितनी अजीब है रिश्तों...
अब तो पिया का आंगन ही है तुम्हरा, 
तुम पर न रहा हक हमारा,
पहले पिया के आंगना के बारे में सोचों
 फिर सोचों पीहर के आंगना की
कितनी अजीब है रिश्तों...
खेल-कूद और इठलाकर जिस आंगना बड़ी हुई बेटी, 
उस आंगना की ऐसी बातें सुन
बेटी का हृदय हो रहा विह्ल
मन ही मन सोच रही क्या एक पल में ही ऐसे बदल जाते हैं 
जन्म देने वाले से रिश्ता और रंग 
कितनी अजीब है रिश्तों ....
फिर मइया क्यों कहती थी
बेटी रिश्ते कभी नहीं बदलते,
क्या मइया ने बेटी से झूठ बोला था, 
पीहर से मेरा रिश्ता, पिया के आते ही क्यों बदला, 
मइया भी कह रही अब तुम न रही हमरे आंगना की
 असुहन की अश्रुधारा से मन हुआ उचाट
रिश्ते भी होते हैं इंसानों की तरह बेईमान
कितनी अजीब है रिश्तों...।


Saturday 29 September 2012

khawabo ke shahensha


  शेर और मर्द न तो बदसूरत होता और न बूढ़ा...
शिखा श्रीवास्तव
अरे यार! पता है आज मार्केट से आते समय क्या हुआ? थोड़ा सा चिढ़चिढ़ाते हुए आयुषी ने मीनाक्षी से कहा। क्या हुआ इतनी चिढ़ कर क्यों बोल रही हो, किसी ने कुछ कह दिया क्या चुटकी लेते हुए मीनाक्षी ने पूछा। पक्का किसी लड़के ने छेड़ा होगा तुझे है न! तू अपना मुंह बंद रखेगी कि नहीं तब तो मैं कुछ बताऊं  गुस्साते हुए आयुषी बोली। चल ठीक है पता क्या हुआ। आयुषी बोली, तुझे तो पता ही था आॅफिस के बाद मुझे मार्केट जाना था। सो मैं सिविल लाइंस चली गई पहले सोचा था कि आॅफिस से सोना को ले लूंगी, लेकिन उसे किसी काम से घर जल्दी जाना था इस वजह से वह मेरे साथ आ न सकी। खैर मैं छह बजे आॅफिस से निकली और मार्केट पहुंची।
वहां से शॉपिंग कर जब मैं मार्केट से बाहर निकल रही थी, अचानक ऐसे लगा कि कोई मेरा पीछा कर रहा है। मैं पीछे की तरफ मुड़ी तो एक अंकल थे जिनकी उम्र करीब 55 के आस-पास होगी। मुझे लगा ये तो बूढ़े हैं, ये मेरा पीछा क्यों करेंगे। वैसे वे अच्छे परिवार और एजुकेटेड लग रहे थे। मुझे लगा कोई और लड़का होगा जो मेरे पीछे की तरफ पलटते ही छिप गया होगा। खैर मैं तेजी से आटो स्टैंड की तरफ बढ़ी और आटो में बैठ गई। अचानक मेरी नजर उन्हीं अंकल पर पड़ी, खैर मुझे इससे क्या? लेकिन शायद वे समझ गए थे कि मेरे मन में यही ख्याल आया था कि इन्हें तो मैंने मार्केट में देखा था। 10 मिनट के बाद आटो चला। थोड़ी देर बाद मुझे ऐसा लगा कि कोई चीज मेरी पीठ पर चल रही है, फिर उसी क्षण यह भी ख्याल आया अरे मेरी तो आदत हैं बेवजह सनके की।  सो मैं चुप बैठ गई, लेकिन कुछ देर बाद फिर से मुझे ऐसा लगा कि कोई मेरी पीठ पर अपने हाथ को धीरे-धीरे चला रहा है।
थोड़ा सा डरते हुए और खुद को सजग करते हुए मैं सीट से थोड़ा आगे की तरफ खिसक गई, ताकि जो भी हो उसका हाथ मुझ तक न आ सके। बहुत तेज से गुस्सा आ रहा था मुझे, क्योंकि मुझे लगा कि मेरे बगल में जो लड़का बैठा वहीं बदमीजी कर रहा है। इसके पहले कि मैं उससे कुछ कहती, मैंने देखा कि उसने अपने दोनों हाथों से आटो में आगे की ओर लगी छड़ी को पकड़ कर रखा है। फिर मुझे लगा ये नहीं है तो कौन है? अंधेरे में न तो कुछ समझ आ रहा था और न ये समझ आ रहा था ये नहीं है तो कौन है, क्योंकि पीछे की सीट में केवल मैं ही लड़की थी और अंकल के अलावा दो लड़के। अंकल के बारे में मेरे मन में एक बार भी खयाल नहीं आया। इसी उधेड़बुन में थी कि मेरी नजर अंकल पर पड़ी। मैंने देखा कि  उन्होंने अपना पीछे वाला हाथ मेरी पीठ पर रखा हुआ था। एक तो अंधेरा दूसरा उनकी उम्र की वजह से मेरे मन में एक बार भी उनके बारे में खयाल नहीं आया था , कि ऐसी गिरी हुई हरकत वो कर सकते हैं। लेकिन उनका हाथ अपने पीठ पर देखते ही मैंने गुस्साते हुए बोला, अंकल आप सही से बैठिए। अनजान बनते हुए वह बोले, क्या हुआ बेटा मैं तो सही से बैठा हूं। आप सही से नहीं बैठे हैं तभी मैं कह रही हूं, अपनी उम्र का कुछ तो लिहाज करें आग उगलते हुए सारी भड़ास मैंने निकाल दी। कैसी बात करती हो बेटा,मैं तुम्हारे पिता की उम्र का हूं  और मेरी भी बेटी है मैं ऐसा क्यों करूंगा? कुछ तो सोच कर बोला करो। अंकल मैं ऐसी नहीं बोल रही हूं , पूरे रास्ते आपने मुझे परेशान किया है। ज्यादा करेंगे तो मैं अभी पब्लिक और पुलिस को बुलाऊंगी।
अच्छा तो ये बात थी, मीनाक्षी ने गहरी सांस लेते हुए बोला। एक बात और आयुषी बीच में ही उसकी बात काटते हुए बोली। क्या ? फिर क्या किया उस बूढ़े खुसठ ने, मीनाक्षी को भी उस सो कॉल्ड अंकल पर गुस्सा आ चुका था। आटो वाले को जब मैं पैसे दे रही तो वह भी उतर पड़े और जाते-जाते वह अंकल बोले कि  मर्द और शेर कभी बूढ़े नहीं होते, वह ताउम्र जवान रहता है। मेरे बारे में सोचना जरूर कल फिर मिलूंगा।
यार मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है,समझ नहीं आ रहा है मैंने उस अंकल क्यों छोड़ दिया दो थप्पड़ रसीद करने चाहिए थे,उन्हें अपनी उम्र तो याद आ ही जाती। अरे आयुषी, तू अपना खून क्यों जला रही है? इससे कुछ नहीं होने वाला है सभी आदमियों की सोच एक सी होती है उनको यही लगता है कि  वह न तो कभी बूढ़े होते हैं और न ही बदसूरत होते हैं। इनकी सोच नहीं बदली जा सकती।
मीनाक्षी का कहना बिल्कुल सही है पुरूष प्रधान समाज में वह यह कभी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि कोई लड़की यह कहें कि आप बूढ़े हो चुके हैं या फिर वह देखने में अच्छा नहीं है। लड़का चाहे कितना ही खराब हो फिर चाहे वह उसकी शिक्षा, व्यवहार या रंग-रूप किसी भी मामले में लड़की से पीछे हो उन्हें लड़की विश्वसुंदरी ही चाहिए। जो लड़कियां देखने सुनने में कम अच्छी होती हैं, उनके लिए तो ऐसे गंदे शब्द यूज करते हैं कि जैसे भगवान ने बहुत बड़ी गलती कर दी है उसे इस दुनिया में भेजकर। यह बात सही है कि सामाजिक बदलाव के साथ लड़को की सोच थोड़ा सा बदली है, लेकिन जब मैरिज की बात आती है तो ज्यादातर इस बात पर रिश्ता तय करने से मना कर देते हैं कि फलां लड़की की हाइट कम है, कि उसकी नाक अच्छी नहीं है, बहुत मोटी है या उसके शरीर में कुछ है ही नहीं। कई बार तो अपने फैं्रड्स को फोटो दिखाते हैं और पूछते हैं बता, तेरी भाभी बनने लायक है या नहीं।
अभी   हाल की बात है मेरी फ्रेंड संयोगिता का भाई राघव जो देखने में कोई खास नहीं था, हां थोड़ा सा बातचीत में लग रहा था कि ठीक है। उसकी शादी की बात चल रही थी, मेरी फ्रेंड ने उसे कुछ फोटो दिखाई। देख! भाई, मां ने तेरे लिए कुछ फोटो भेजी हैं इनमें से जो लड़की तुझे पसंद हो बता। बड़े ही उत्सकता से फोटो देखी और चिढ़चिढ़ाते हुए बोला क्या दीदी मां को कोई और लड़की नहीं मिली। यह भी कोई लड़की एक तो सांवली , ऊपर से इसके होंठ देखिए कितने मोटे हैं। मैं इससे शादी करूंगा, किसी कीमत पर नहीं। संयोगिता ने जैसे ही यह बात सुनी गुस्साते हुए बोली तू ही कौन सा कोहिनूर है जो तेरे लिए  हूर की परी के रिश्ते आएंगे। पहले तू अपनी शक्ल देख बात में लड़कियों की बात कर मेरे से। यह सुनते ही राघव लाल-पीला हो गया। देखो दीदी आप मेरे से बड़ी हो इसका मतलब यह नहीं है कि आप मेरा मजाक उड़ाए। वैसे भी यह कहां लिखा है कि लड़के देखने में खराब होते हैं। वह चाहे जैसे हो हमेशा जवान और बढ़िया होते हैं। लड़कियां की उम्र और सुंदरता जरूर मायने रखती है। आखिर हम लड़को के शान की बात जो होती है। मैं तो खूबसूरत लड़की से ही शादी करूंगा, ताकि लोग कहें कि राघव की बीवी है।
यह हैं पुरूष प्रधार समाज की असली कहानी जो खुद को कभी भी बूढ़ा और बदसूरत नहीं मानते। अगर आपने कह दिया कि आप बूढ़े हो या किसी लड़के से कह दो कि तुम देखने में बिल्कुल अच्छे नहीं लगते हो। तुमसे कोई सुंदर लड़की शादी नहीं करेगी। समझो उसके सबसे बड़े दुश्मन आप ही होगे। यह ऐसी सोच है जो पुरूष के दिमाग में हमेशा हावी रहेगी क्योंकि शेर और मर्द न तो बूढ़े होते हैं और न बदसूरत....

Friday 20 July 2012

AADHI DUNIA KI DURDASA....


आंचल में है दूध, आंखों में पानी...
शिखा श्रीवास्तव
मुझे नहीं पता है कि मैं क्या करूं? क्या कहूं, या  लिखूं  इधर चार-पांच दिन से जिस तरह से एक के बाद एक महिलाओं और लड़कियों की इज्जत और उनकी आजादी के साथ खिलवाड़ किया जा रहा, उसे पढ़ और देखकर कभी-कभी आत्मा फटने लगती है। कि क्या हो रहा है समाज में। सारी संवेदनाएं और इंसानियत जैसे सब शून्य हो गई हों। दुनिया के सारे नियम- कायदें, बंदिशें और शोषण केवल महिलाओं के लिए ही हैं। जब भी किसी  पुरुष के दिमाग में हैवानियत शुरु होती है, अपना काम किया और बढ़ गया आगे।
जिस देश में यह कहा जाता है कि-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते- रमन्ते तत्र देवता यानि जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता बसते हैं।
वहां महिलाओं की ऐसी दुर्दशा देख शर्म आती है। कितनी शर्मिंदगी की बात है कि जिस कोख से यह दुनिया चलती है, उसी के नुमांइदे  उन्हीं के स्वरूप को बेइज्जत कर रहे हंै। जब महिला और पुरुष दोनों बराबर हैं, तो उनके साथ यह अभद्र व्यवहार क्यो?
हाल ही कुछ घटनाएं यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि क्या वाकई में लड़कियां और महिलाएं ही इस तरह की घिनौनी हरकतों के लिए उकसाती है क्योंकि हर बात के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है। कितना गंदा खेल सरेराह आम लोगों के बीच हो रहा है और न कोई विरोध करने वाला है और न कोई सुनने वाला है। यह सही नहीं हो रहा है, क्योंकि जब किसी की चीज की अति हो जाती है तो, उसका सर्वनाश होना तय है। भले ही यह कलियुग है लेकिन अति हर चीज की बुरी होती है। ऐसी घटनाओं को सब ऐसे देखते हैं जैसे कि कोई नौटंकी या मेला लगा हुआ है। कुछ लोग हाल की घटनाओं को सुन या देख कर अफसोस जता रहे हैं, कुछ लड़कियों को कोस रहे हैं तो कुछ यह कह कर शांत हो जा रहे है कि इसमें कौन सी बड़ी बात है, यह कह लग गए अपने- अपने काम पर। हो गया हमारी सभ्य सोसायटी का काम पूरा।
गुवाहटी में एक पंद्रह साल की लड़की को 20 लड़के सरेराह न्यूड करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं कहता आखिर कौन सी अपनी बेटी या बहन या परिवार की है जो पचड़े में पड़े। कुछ को खड़े होकर तमाश देखने में मचा आ रहा था, सो खड़े हो गए और कुछ जरूरत से ज्यादा शरीफ थे इसलिए बिना रूके चुपचाप अपने-अपने रास्ते चले गए। समझ नहीं आता आखिर क्या समझ रखा है लड़कियों को केवल उपभोग की वस्तु। ऐसे ही कोच्चि में 23 साल की लड़की अपनी शादी की बात कर घर से वापस आ रही थी, वहां तमिलनाडु के गोविंदास्वामी (जैसा न्यूज में बताया गया) ने पहले उससे ट्रेन में ही छेड़खानी करने की कोशिश की, सफल नहीं हुआ तो लड़की को ट्रेन से धक्का देकर पटरियों पर ही रेप कर दिया। जहां पांच दिन एक हॉस्पिटल में जिंदगी और मौत से जूझने के बाद रविवार को उसने दम तोड़ दिया। एक और घटना में बरेली के सुभाषनगर में घर में लड़की को अकेला पाकर उसके साथ गैंगरेप की कोशिश की गई। विरोध करने पर उसे बेल्ट से पीटा और उसके कपड़े फाड़ दिए। खुद की इज्जत बचाने के लिए उसे न्यूड होकर ही भागना पड़ा। हाल ही में एक बागपत की खाप पंचायत ने एक तालिबानी फरमान दिया है कि 40 साल से कम उम्र की महिलाएं और युवतियां मार्केट नहीं जाएंगी, मोबाइल फोन नहीं यूज करेंगी। ताकि उनके साथ छेड़खानी आदि घटनाएं न हो सकें। महिलाओं को इस तरह घर में कैद कर क्या खाप पंचायत इस  बात की गांरटी लेती है कि वह घर में सुरक्षित में है। क्योंकि उनके साथ रेप, छेड़छाड़, शारीरिक शोषण घर पर भी हुआ है। स्वतंत्र देश में इस तरह का तालिबानी फरमान सही नहीं है। फिर अगर सारे फैसलें पंचायत को ही करने हैं, तो सरकार और ज्यूडिसरी किस लिए है?
मैं ऐसा नहीं कह रही हूं कि सभी पुरूष एक जैसे हैं, लेकिन अगर आप शांत रह कर अपराध का साथ देते हैं, तो आप भी उतने ही दोषी हैं जितने की वो जो महिलाओं की इज्जत को खिलौना समझ रहे हैं।
हमारे समाज के कुछ सभ्य लोगों का मानना है कि वेस्टर्न डेÑसेज के कारण ऐसा होता है, तो ऐसा कहने वाले जरा यह बताएं कि जब एक 80 साल की बुजुर्ग महिला जो जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर आ चुकी है उसके साथ ऐसी घटनाएं क्यों हो जाती हैं? वह तो वेस्टर्न कपड़े नहीं पहनती है। दो साल की बच्ची जो अपने मां-बाप को भी सही से नहीं पहचानती उसे भी आप दोषी ठहरा दें। लेकिन कभी उन पर आरोप न लगाएं, जो ऐसे कुकृत्यों को अंजाम देते हैं।
नेशनल क्राइम रिपोर्ट पर नजर डालें तो रूह कंपा देने वाले आंकड़े सामने आते हैं। 2006 में 1,64, 765 अपराध हुए, जो 2010 में बढ़कर 2, 13, 585 हो गए। वहीं 2010 में रेप
22, 172 , किडनैप 29,795, दहेज हत्या के 8,391 केस, टार्चर के 94,041, छेड़छाड़ के 40,9, 678
, यौन शोषण के 9, 961, लड़कियों को इंपोर्ट करने के 36, तस्करी के 24, 999 अनुचित प्रदर्शन के 8 और दहेज निषेध अधिनियम के तहत 5, 182 मुकदमें दायर हुए। भले ही नेशनल क्राइम रिपोर्ट के आंकड़े दिल दहलाने वाले हो, लेकिन अभी भी इससे दोगुने अपराध ऐसे हैं जिनकी जानकारी ही नहीं हो पाती है। सोचिए अगर सभी अपराधों का ब्योरा मिल जाए तो आंकड़े कहां पहुंच जाएंगे। दस में दो अपराध के बारे में पुलिस को खबर रहती है, बाकी का कुछ पता नहीं। वैसे भी जिनका पता चलता है उन्हीं की तह तक पुलिस नहीं पहुंच पाती है। यह भी एक शर्म की बात है कि जितनी तेजी से अपराध बढ़ रहे हैं, उतनी ही तेजी से पुलिसिया कार्रवाई का ग्राफ गिर रहा है।
कभी-कभी कुछ लोग ऐसी घटनाओं के लिए किसी खास समूह या वर्ग पर आरोप लगाने लगते हैं, जो गलत है। इस तरह की दरिंदगी और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए न कोई धर्म, जाति या वर्ग जिम्मेदार नहीं होता। जिम्मेदार है तो कुछ पुरुषों की विकृत मानसिकता जिन्हें यह लगता है कि  महिलाएं सिर्फ गुलाम हैं और उनके साथ किसी भी तरह का घिनौना काम करना सही है, क्योंकि आप पुरुष हैं। अगर नियम और बंदिशें महिलाएं के लिए हैं तो पुरुषों के लिए कोई नियम क्यों नहीं लागू होता है।
कुछ महानुभाव का कहना है कि जो चीज खूबसूरत या उपभोग की है उसके साथ तो ऐसा होगा ही। एक बात बताएं जरा क्या बात आप अपनी मां,बहन, बेटी या पत्नी के लिए भी कहेंगे। घिन आती है ऐसी पढ़ी-लिखी सोसाइटी की ऐसी नीच सोच पर। कुछ कहते हैं कि पुलिस के पास जाना चाहिए, तो शायद आपको पता ही होगा कि हमारे देश की पुलिस कितनी अच्छी है रेप हो जाता है, अपराधी भाग जाता है तब पहुंचती है पुलिस। पहुंचने के बाद भी बेतुके सवाल। और मौका मिला तो वह भी हाथ साफ करना नहीं भूलते। ऐसे में कौन लड़की जाएगी पुलिस स्टेशन शिकायत करने।
सरकार और नेता दोनो एक ही चट्टे-बट्टे के हैं। केवल देश को लूटना है, किसी महिला की आबरू से उसका कोई लेना देना नहीं है। जो हो रहा है होने दो, न देश की इज्जत से कुछ लेना देना न यहां की महिलाओं से। कानून बनाएं भी हैं तो ऐसे कि जितनी देर में फैसला होगा उतने देर में कई बार उस पीड़ित महिला का बलात्कार हो चुका होगा। हैवानियत का ऐसा खेल होता रहा, तो महिलाओं को अपने लिए खुद ही अकेले कुछ करना पडेÞगा। फिर उसका परिणाम कुछ भी हो।
मैथिली शरण गुप्त ने महिलाओं को व्यथा को बहुत पहले ही बयां कर दिया था,जो बिल्कुल सही था।
अबला जीवन है तेरी यही कहानी,
आंचल में है दूध और आंखों में पानी।
आज यही हालत महिलाओं की हो गई है, 21 वीं सदी नाम की है जो हाल महिलाओं का आज से 100 साल पहले था वहीं अब है। जब तक महिलाओं को समानता और सम्मान की नजर से पुरुष नहीं देखेंगे तब तक ऐसा होता रहेगा। देवी की पूजा करते हैं, तो उनके स्वरुप का भी सम्मान करें।