Thursday 24 November 2011

छोटे तब क्षमा करें, जब बड़े करें उत्पात!

बचपन से सुनते आए हैं, क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात... पर लगता है समाज 180 डिग्री पर घूम गया है। मुंबई में एक 76 साल का बूढ़ा व्यक्ति नाबालिग लड़कियों की अश्लील सीडी बनाते हुए पकड़ा गया है। अहमदाबाद में कई बुजुर्गों को लिव-इन रिलेशनशिप के लिए पार्टनर मिल गए हैं। दोनों सामाजिक मान्यताओं को झकझोरने वाली घटनाएं हैं। हालांकि दोनों की आपस में तुलना नहीं हो सकती। पहला मामला, सभ्यता-संस्कार की धज्जियां उड़ाने वाले एक अकेले झक्की बीमार दिमाग की उपज है। इस तुलना में दूसरे मामले को शादी के बंधन के बाहर 'सुख' तलाशने की सामूहिक कोशिश का नाम देकर कुछ हद तक 'जस्टिफाई' किया जा सकता है। थोड़ी देर को इनसे जुड़ी नैतिकता के मूल सवाल को अलग रखते हुए बढ़ती हुई उम्र के उस साझा सूत्र पर विचार करते हैं, जो इन्हें जोड़ता है।

कहते हैं, बुढ़ापा अपने साथ कमजोरी और बीमारी लेकर आता है। बहुत सारी जिंदगियों में असुरक्षा और एकाकीपन भी। उम्र का ऐसा पड़ाव होता है, जहां नौकरी से रिटायरमेंट हो चुका होता है। बिजनेस हो तो, वह भी अपने से ज्यादा 'एफिशियंट' नई पीढ़ी ने संभाल लिया होता है। किसी को न आपकी जरूरत होती है और न ही आपकी अनचाही 'पुराने ढर्रे की' सलाह की। बच्चे बड़े होकर अपने संसार में रम चुके होते हैं। ऊपर से, जीवनसाथी की मौत हो चुकी हो तो जीवन का चौथापन एकांतवास में परिवर्तित होने में देर नहीं लगती। हालात से उपजी चिड़चिड़ाहट और खीज पुराने साथियों से भी दूर कर देती है। 'समझदार बुजुर्ग' अपने को घर के बाहर मंदिर के कीर्तन-भजन में झोंक देते हैं। प्रैक्टिकल वरिष्ठ नागरिक बच्चों को संभालने से लेकर सब्जी लाने तक की घर की अनचाही ड्यूटी पकड़ लेते हैं। किसी पार्क में नजर घुमाएं। जिंदगी की जिजीविषा लिए लकड़ी पकड़े हांफते हुए धीमे मगर सधे कदमों से स्वस्थ जीवन की कामना में आगे बढ़ते हुए सीनियर सिटीजन दिखेंगे। वहीं दूसरी तरफ, संसार के बेगानेपन से थके, वीरानगी में डूबे, बेजान आंखों और कड़वाहट भरी झुर्रियों का बोझ उठाए निढाल- गुमसुम चेहरे भी दिखाई दे जाएंगे।

बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की बदौलत लोग ज्यादा जी रहे हैं। वो बुजुर्ग इंसान अगर मानता है कि वह शरीर और दिमाग, दोनों से चुस्त-दुरुस्त है, तो वह तथ्य को साबित करने के लिए दूसरे रास्ते तलाशता है। राजनीति की मक्कारी और झूठ झेलना आसान काम नहीं होता। वह सामाजिक संस्थाओं में जाता है तो वहां भी फुल टाइम फ्री सेवाओं की बजाए उसके दिए दान से ही उसका आकलन होता है। लॉफिंग क्लब, योगा सेंटरों में भी बड़े-बूढ़ों के अपने ग्रुप या 'क्लिक' बन चुके होते हैं, जिनसे मेल बनाए रखने की शर्तें व्यक्ति को आत्मसम्मान से समझौता लगने लगती हैं। नई पीढ़ी चाहे जितनी ही मॉर्डन क्यों न हो, अपने बुजुर्गों से सामाजिक मर्यादाओं के पालन की अपेक्षा रखती है। ये सत्य है कि समय के साथ सामाजिक आचरण और मर्यादाओं की सीमाएं बदलती हैं। पाप-पुण्य नापने के सामाजिक पैमाने भी युग के अनुरूप बदलते रहे हैं। बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह, दहेज प्रणाली को सामाजिक मान्यता मिली हुई थी। आज ये सामाजिक दोष माने जाते हैं।

बुजुर्गों का एक वर्ग आज पारिवारिक वर्जनाओं को धता बताकर अपने तरीके से जीवन जीने के तरीके तलाश रहा है। क्या इन घटनाओं को विकृति मानकर नजरअंदाज कर दिया जाए या फिर समाज को बुजुर्गों के अस्तित्व, उनकी संवेदनशीलता को समाहित करने वाले नए मानदंडों पर दोबारा विचार करने की जरूरत है?

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