Thursday 24 November 2011

सिर्फ लोकपाल कानून से नहीं जाएगा भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार भारतीय लोकतंत्र का एक असुविधाजनक तथ्य है। इस व्याधि के खिलाफ लगातार लड़ाई की जरूरत है। इसका अहसास तमाम राजनीतिक दलों, जनवादी संगठनों और नागरिक समाज के प्रबुद्ध वर्ग को है। इसे लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण कहा जा सकता है।लेकिन वर्तमान  समय मे भ्रष्टाचार उन्मूलन समय की मांग है और इसके लिए देश को सशक्त लोकपाल की जरूरत है। इसके साथ-साथ और भी कई कदम उठाने होंगे, जिनकी मदद से हम भ्रष्टाचार के खिलाफ कारगर जंग छेड़ सकते हैं। भारतीय समाज एक गतिशील समाज है। सत्ता और उपभोक्ता वर्ग के बीच कई लोग आते हैं, जिन्हें हम बिचौलिया कह सकते हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सवाल हो या लोक सेवा से जुड़े सरोकार हों, इन्हें सही ढंग से हल करने की आवश्यकता है। अगर वाकई मे हम बदलाव चाहते है तो सबसे पहले युवाओ को आगे आना होगा,क्योकि जब देश मे बदलाव आया हमेशा से इस क्रांति की इबादत युवाओ द्वारा  ही लिखी गई है |
टेक्नोलॉजी से जाएंगे बिचौलिए
बिचौलिया संस्कृति पर अंकुश टेक्नोलॉजी की मदद से लग सकता है। आज हम इनकम टैक्स के लिए अप्लाई करते हैं तो जिसकी मदद से यह फॉर्म भरते हैं, वह उसका पैसा मांगता है। अगर यह प्रक्रिया पूरी तरह से ऑनलाइन हो जाए, जिसमें ऑनलाइन ही अप्लाई करें और रिफंड का पैसा सीधे खाते में आ जाए तो भ्रष्टाचार की संभावना कम होगी। इसी तरह पासपोर्ट भी अगर पूरी तरह से ऑनलाइन बनकर डाक विभाग के जरिए घर आने लगे तो बिचौलियों की जरूरत कहां होगी? इस तरह बिचौलिया संस्कृति समाप्त होने के साथ-साथ भ्रष्टाचार का तंत्र बिखर कर टूट जाएगा। टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके बिचौलिए की की भूमिका शनै: शनै: खुद समाप्त हो जाएगी। इससे आम जनता को लाभ हो सकता है।
धन लोलुपता का जोर
भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत है। हमारे वंदनीय पूर्वजों ने चरित्र निर्माण के महत्व को रेखांकित किया था। राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की स्फूर्तिदायिनी परंपराओं ने गांधी जी के नेतृत्व में ईमानदारी , सादगी , सत्यनिष्ठा और पारदर्शिता का पाठ पढ़ाया था। गांधी भक्त रोम्यां रोलां के शब्द लेकर कहा जाए तो गांधी केवल एक लफ्ज नहीं , बल्कि एक मिसाल है। वह अपने देशवासियों की आत्मा का प्रतीक हैं। गांधी जी ने जिस भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना देखा था , नेहरू जी , इंदिरा जी और राजीव जी ने उस सपने को सच में बदलने में निर्णायक भूमिका अदा की थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके सहकर्मी दृढ़ संकल्प के साथ भ्रष्टाचार मुक्त शासन / प्रशासन को विस्तृत आधार देना चाहते हैं। उपभोक्ता संस्कृति पश्चिम से आई है। धन लोलुपता ने हमारे नैतिक मूल्यों को झकझोर दिया है। जल्दी से जल्दी धन के अंबार अपने घर - आंगन में लगानेे की लालसा बढ़ी है। यह किसी व्यक्ति के पाप और पुण्य से जुड़ा सवाल नहीं है , बल्कि विकास की ऐतिहासिक उपज है। हमें इसमें बदलाव लाना होगा , लेकिन इसमें वक्त लग सकता है।

कई लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन चुका है , लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। भ्रष्टाचार के लिए अकेले चरित्र दोषी नहीं है। हमारे यहां मांग और आपूर्ति के बीच जो दूरी है , वह भी भ्रष्टाचार को बढ़ाती है। हम शिक्षा के क्षेत्र को ले सकते हैं। आज गुणवत्ता संपन्न शिक्षा संस्थान देश मंे मुट्ठीभर हैं , लेकिन इनमें दाखिले के लिए मारामारी है। लोग अच्छे कॉलेजों में पैसे देकर भी एडमिशन के लिए तैयार रहते हैं। इससे कदाचार को बल मिलता है। ऐसे में अगर इन दोनों के मिसमैच को खत्म कर दिया जाए तो भ्रष्टाचार को खत्म करने में मदद मिल सकती है। भ्रष्टाचार के उन्मूलन का सवाल देश और दुनिया में महत्वपूर्ण बना हुआ है। कोई एक तरीका अपनाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा , मैं ऐसा नहीं मानता। भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए आपको समानांतर चीजों का इस्तेमाल करना होगा। इस बिंदु पर , अनुरोध करूंगा कि जहां मजबूत कानून है , बिचौलिया व्यवस्था नहीं है , वहां भी कदाचार पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। ऐसे में यह कहना कि लोकपाल के कानून से भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म हो जाएगा , सही नहीं होगा। लेकिन हां , देश में एक अच्छा और मजबूत कानून तो होना ही चाहिए।
भारत एक संसदीय गणतंत्र है। संविधान और संसद इसके दो आधारभूत अंग हैं। इसलिए लोकपाल संविधान सम्मत होना चाहिए। विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति पृथक्करण जनतंत्र का मूल सिद्धांत है। इसी वजह से भारत संसार का सबसे बड़ा जनतंत्र बना हुआ है। कानून का शासन , स्वतंत्र न्यायपालिका और अभिव्यक्ति की आजादी ही जनतंत्र का बुनियादी सरोकार है। सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच संवाद के बल पर जनतंत्र चलता है। एक अच्छा कानून बनाने में संसद अपनी भूमिका अदा करती है और स्थायी समिति सभी पक्षों से विचार - विमर्श करती है। इसके बाद विधेयक तैयार होता है और सरकार इसे संसद में पेश करती है।


पहले से धारणा न बनाएं

सरकार संविधान और संसद की सर्वोच्चता पर भरोसा करती है। लेकिन लोकपाल बिल की बहस के दरमियान ऐसे अवसर भी देश ने देखे हैं , जब दुराग्रह का सहारा लेकर कुछ शक्तियों ने कहना शुरू किया था कि वे संविधान और संसद से ऊपर हैं और उनका हर वाक्य , ब्रह्मवाक्य है। यदि उसे नहीं माना गया तो वे सरकार का देशव्यापी विरोध करेंगे। यह उनका फैसला है। हर नागरिक किसी को वोट देने के लिए स्वतंत्र है। कांग्रेस सिर्फ अपना काम करेगी , अपना कर्तव्य निभाएगी और जब कर्तव्य पूरा हो जाएगा तो वह फिर जनता के बीच जाएगी। जनता फैसला करे। हमने कहा है कि अगले सत्र में हम न सिर्फ एक , बल्कि कई और विधेयक भी लाने वाले हैं। हम कहना चाहते हैं कि लोकपाल के मुद्दे पर उन्हें राष्ट्र के सामूहिक विवेक पर भरोसा रखना चाहिए , जिसका प्रतिनिधित्व संसद करती है। इस मुद्दे पर पहले से कोई धारणा तय कर लेना सही नहीं है। अन्ना जी ने जब कहा कि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है तो हमने उन पर भरोसा किया। उन्होंने जो मुद्दे उठाए हैं , उनका राजनीतिक कारणों से दुरुपयोग नहीं होने देना चाहिए। सत्य हमें रास्ता दिखाएगा और साहस हमारी रक्षा करेगा। हम जल्द ही अपनी मंजिल पर पहुंच जाएंगे।

छोटे तब क्षमा करें, जब बड़े करें उत्पात!

बचपन से सुनते आए हैं, क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात... पर लगता है समाज 180 डिग्री पर घूम गया है। मुंबई में एक 76 साल का बूढ़ा व्यक्ति नाबालिग लड़कियों की अश्लील सीडी बनाते हुए पकड़ा गया है। अहमदाबाद में कई बुजुर्गों को लिव-इन रिलेशनशिप के लिए पार्टनर मिल गए हैं। दोनों सामाजिक मान्यताओं को झकझोरने वाली घटनाएं हैं। हालांकि दोनों की आपस में तुलना नहीं हो सकती। पहला मामला, सभ्यता-संस्कार की धज्जियां उड़ाने वाले एक अकेले झक्की बीमार दिमाग की उपज है। इस तुलना में दूसरे मामले को शादी के बंधन के बाहर 'सुख' तलाशने की सामूहिक कोशिश का नाम देकर कुछ हद तक 'जस्टिफाई' किया जा सकता है। थोड़ी देर को इनसे जुड़ी नैतिकता के मूल सवाल को अलग रखते हुए बढ़ती हुई उम्र के उस साझा सूत्र पर विचार करते हैं, जो इन्हें जोड़ता है।

कहते हैं, बुढ़ापा अपने साथ कमजोरी और बीमारी लेकर आता है। बहुत सारी जिंदगियों में असुरक्षा और एकाकीपन भी। उम्र का ऐसा पड़ाव होता है, जहां नौकरी से रिटायरमेंट हो चुका होता है। बिजनेस हो तो, वह भी अपने से ज्यादा 'एफिशियंट' नई पीढ़ी ने संभाल लिया होता है। किसी को न आपकी जरूरत होती है और न ही आपकी अनचाही 'पुराने ढर्रे की' सलाह की। बच्चे बड़े होकर अपने संसार में रम चुके होते हैं। ऊपर से, जीवनसाथी की मौत हो चुकी हो तो जीवन का चौथापन एकांतवास में परिवर्तित होने में देर नहीं लगती। हालात से उपजी चिड़चिड़ाहट और खीज पुराने साथियों से भी दूर कर देती है। 'समझदार बुजुर्ग' अपने को घर के बाहर मंदिर के कीर्तन-भजन में झोंक देते हैं। प्रैक्टिकल वरिष्ठ नागरिक बच्चों को संभालने से लेकर सब्जी लाने तक की घर की अनचाही ड्यूटी पकड़ लेते हैं। किसी पार्क में नजर घुमाएं। जिंदगी की जिजीविषा लिए लकड़ी पकड़े हांफते हुए धीमे मगर सधे कदमों से स्वस्थ जीवन की कामना में आगे बढ़ते हुए सीनियर सिटीजन दिखेंगे। वहीं दूसरी तरफ, संसार के बेगानेपन से थके, वीरानगी में डूबे, बेजान आंखों और कड़वाहट भरी झुर्रियों का बोझ उठाए निढाल- गुमसुम चेहरे भी दिखाई दे जाएंगे।

बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की बदौलत लोग ज्यादा जी रहे हैं। वो बुजुर्ग इंसान अगर मानता है कि वह शरीर और दिमाग, दोनों से चुस्त-दुरुस्त है, तो वह तथ्य को साबित करने के लिए दूसरे रास्ते तलाशता है। राजनीति की मक्कारी और झूठ झेलना आसान काम नहीं होता। वह सामाजिक संस्थाओं में जाता है तो वहां भी फुल टाइम फ्री सेवाओं की बजाए उसके दिए दान से ही उसका आकलन होता है। लॉफिंग क्लब, योगा सेंटरों में भी बड़े-बूढ़ों के अपने ग्रुप या 'क्लिक' बन चुके होते हैं, जिनसे मेल बनाए रखने की शर्तें व्यक्ति को आत्मसम्मान से समझौता लगने लगती हैं। नई पीढ़ी चाहे जितनी ही मॉर्डन क्यों न हो, अपने बुजुर्गों से सामाजिक मर्यादाओं के पालन की अपेक्षा रखती है। ये सत्य है कि समय के साथ सामाजिक आचरण और मर्यादाओं की सीमाएं बदलती हैं। पाप-पुण्य नापने के सामाजिक पैमाने भी युग के अनुरूप बदलते रहे हैं। बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह, दहेज प्रणाली को सामाजिक मान्यता मिली हुई थी। आज ये सामाजिक दोष माने जाते हैं।

बुजुर्गों का एक वर्ग आज पारिवारिक वर्जनाओं को धता बताकर अपने तरीके से जीवन जीने के तरीके तलाश रहा है। क्या इन घटनाओं को विकृति मानकर नजरअंदाज कर दिया जाए या फिर समाज को बुजुर्गों के अस्तित्व, उनकी संवेदनशीलता को समाहित करने वाले नए मानदंडों पर दोबारा विचार करने की जरूरत है?

नेताओं पर कब-कब चले गुस्से के थप्पड़, नफरत के जूते


नई दिल्ली. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश पर चले नफरत के जूते का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह आज केंद्रीय मंत्री शरद पवार पर गुस्से के थप्पड़ पर आ गया है। हिंदुस्तान के अलावा दुनिया के कई देशों में कभी नेताओं को जूता तो कभी थप्पड़ जड़ा गया है। एक इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर 2008 में जूता फेंका था। इसके अलावा, गृहमंत्री पी चिदंबरम, पाकिस्तान राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और चीनी राष्ट्रपति वेन जियाबाओ पर भी जूते फेंके जा चुके हैं।

बुश पर जब फेंका गया था जूता

जूता संस्कृति की शुरुआत दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से हुई। इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा हैं, लेकिन जूता पड़ते वक्त जॉर्ज बुश राष्ट्रपति थे। उनके कार्यकाल का अंतिम दौर था। वो बगदाद दौरे पर गए थे।

आडवाणी पर जब चली चप्पल

मध्यप्रदेश में अप्रैल २क्क्९ में जब एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी दौरे पर थे, तब उन पर चप्पल चल गई थी। घटना मध्य प्रदेश के कटनी में हुई थी। उस वक्त आडवाणी एक सभा को संबोधित कर रहे थे। उन पर चप्पल फेंकना वाला भाजपा का ही कार्यकर्ता पावस अग्रवाल था।

पी चिदंबरम पर भी उछला था जूता

गृह मंत्री पी चिदंबरम की प्रेस कॉन्फ्रेस में एक पत्रकार ने उन पर जूता उछाल दिया। उस वक्त चिदंबर जगदीश टाइटलर को सीबीआई की ओर से क्लीन चिट दिए जाने पर बोल रहे थे। ये पत्रकार उनसे संतुष्ट नहीं हुआ और विरोध करते हुए उनके ऊपर जूता फेंक दिया।

अरविंद केजरीवाल पर हमला

पिछले दिनों जब टीम अन्ना के सबसे सक्रिय सदस्य अरविंद केजरीवाल लखनऊ में कांग्रेस के खिलाफ एक सभा को संबोधित करने पहुंचे तो उस वक्त एक युवक ने उन पर हमला कर दिया। हालांकि, केजरीवाल को लगी तो नहीं, लेकिन उस युवक की काफी पिटाई हो गई। बाद में केजरीवाल ने इस युवक को माफ कर दिया।

प्रशांत भूषण की हुई पिटाई

कश्मीर के विवादित बयान के बाद टीम अन्ना के सदस्य को उनके दफ्तर में ही घुसकर भगत सिंह क्रांति सेना के कुछ युवकों ने पिटाई कर दी। ये युवक कश्मीर को अलग देश का दर्जा दिए जाने की राय पर काफी नाराज थे। वहीं, इस घटना के बाद भी भूषण अपनी बात पर जमे रहे।

सुखराम की भी हुई पिटाई

पूर्व संचार मंत्री सुखराम पर कोर्ट परिसर में ही एक युवक ने हमले की कोशिश की थी। हमला उस वक्त हुआ, जब उन्हें घूस लेने के आरोप में पांच साल की कैद और चार लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई जा रही थी। हमले के वक्त सुखराम फैसला सुनने के बाद कोर्ट रूम से बाहर निकल रहे थे। हरविंदर सिंह नाम के हमलावार के पास कोई हथियार नहीं था और उसने लात-घूंसों से ही सुखराम पर हमले की कोशिश की थी लेकिन जल्द ही उसे काबू कर लिया गया।

मनमोहन पर भी जूता

जूते की मार से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नहीं बच पाए हैं। प्रधानमंत्री पर उस समय रैली को संबोधित कर रहे थे। जूता प्रधानमंत्री के मंच से कुछ दूरी पर गिरा। इस घटना के बाद भी प्रधानमंत्री भाषण देते रहे। हितेश चौहान नामक युवक ने यह जूता फेंका था।

जर्नादन द्विवेदी पर भी चला जूता

कांग्रेसी नेता जर्नादन द्विवेदी पर एक पत्रकार ने जूता मारने की कोशिश की थी। उस वक्त द्विवेदी कांग्रेस मुख्यालय पर आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेस में मीडिया को संबोधित कर रहे थे। पत्रकारों से बातचीत के दौरान द्विवेदी से एक सवाल किया गया जवाब मिलने के बावजूद यह पत्रकार जूता लेकर मंच पर चढ़ गया और द्विवेदी को मारने की कोशिश की। इस पत्रकार की पहचान झुंझून राजस्थान दैनिक नवसंचार के संवाददाता के रूप में की गई है। बाद में पुलिस के हवाले कर दिया गया।

कलमाड़ी भी खा चुके हैं चप्पल

इसी साल अप्रैल में कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले मामले में गिरफ्तार ऑर्गनाइजिंग कमिटी के पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी पर सीबीआई कोर्ट के बाहर चप्पल फेंकी गई थी। हालांकि वह कलमाड़ी को लगी नहीं। कलमाड़ी पर जब चप्पल फेंकी गई, तब उन्हें सीबीआई कोर्ट में पेशी के लिए ले जाया जा रहा था। कपिल ठाकुर नामक शख्स ने उनपर चप्पल फेंकी थी।  कपिल मध्य प्रदेश के रहनेवाले हैं।

वरुण गांधी के काफिले पर भी जूते-चप्पल से हमला

भाजपा के सांसद वरुण गांधी के रैली में न आने से नाराज भाजपा कार्यकर्ताओं ने उनके काफिले पर जूते चप्पल फेंके और उन्हें काले झंडे दिखाए थे। घटना नवाबगंज तहसील की थी।

क्या है फासीवादी

मुसोलिनी द्वारा संगठित "फ़ासिओ डि कंबैटिमेंटो" का राजनीतिक आंदोलन था जो मार्च,1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं शताब्दी के क्रांतिकारियों-"फासेज़"-से ग्रहण किए गए। मूल रूप में यह आंदोलन समाजवाद या साम्यवाद के विरुद्ध नहीं, अपितु उदारतावाद के विरुद्ध था।



मोटे तौर पर फासीवादी व्यवस्था में शासक द्वारा किया गया हर कार्य और आदेश जनता पर लागू होता है। इसमें लिखित संविधान जैसी कोई बात नहीं होती है। शासक के हर अच्छे और बुरे कार्यों को जनता पर थोप दिया जाता है।




डा.लॉरेंस ब्रिट नामक एक राजनीतिक विज्ञानी ने फासीवादी शासनों जैसे हिटलर (जर्मनी), मुसोलिनी (इटली ) फ्रेंको (स्पेन), सुहार्तो (इंडोनेशिया), और पिनोचेट (चिली) का अध्ययन किया और निम्नलिखित 14 लक्षणों की पहचान की है;



1. शक्तिशाली और सतत राष्ट्रवाद — फासिस्ट शासन देश भक्ति के आदर्श वाक्यों, गीतों, नारों , प्रतीकों और अन्य सामग्री का निरंतर उपयोग करते हैं। हर जगह झंडे दिखाई देते हैं जैसे वस्त्रों पर झंडों के प्रतीक और सार्वजानिक स्थानों पर झंडों की भरमार।


2. मानव अधिकारों के मान्यता प्रति तिरस्कार — क्योंकि दुश्मनों से डर है इसलिए फासिस्ट शासनों द्वारा लोगो को लुभाया जाता है कि यह सब सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए वक्त की ज़रुरत है।शासकों के दृष्टिकोण से लोग घटनाक्रम को देखना शुरू कर देते हैं और यहाँ तक कि वे अत्याचार, हत्याओं, और आनन-फानन में सुनाई गयी कैदियों को लम्बी सजाओं का अनुमोदन करना भी शुरू कर देते हैं।


3. दुश्मन या गद्दार की पहचान एक एकीकृत कार्य बन जाता है — लोग कथित आम खतरे और दुश्मन – उदारवादी; कम्युनिस्टों, समाजवादियों, आतंकवादियों, आदि के खात्मे की ज़रुरत प्रति उन्मांद की हद तक एकीकृत किए जाते हैं।


4. मिलिट्री का वर्चस्व — बेशक व्यापक घरेलू समस्याएं होती हैं पर सरकार सेना का विषम फंडिंग पोषण करती है। घरेलू एजेंडे की उपेक्षा की जाती है ताकि मिलट्री और सैनिकों का हौंसला बुलंद और ग्लैमरपूर्ण बना रहे।



5. उग्र लिंग-विभेदीकरण — फासिस्ट राष्ट्रों की सरकारें लगभग पुरुष प्रभुत्व वाली होती हैं।फासीवादी शासनों के अधीन, पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को और अधिक कठोर बना दिया जाता है। गर्भपात का सख्त विरोध होता है और कानून और राष्ट्रीय नीति होमोफोबिया और गे विरोधी होती है।


6. नियंत्रित मास मीडिया – कभी कभी तो मीडिया सीधे सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है, लेकिन अन्य मामलों में, परोक्ष सरकार विनियमन, या प्रवक्ताओं और अधिकारियों द्वारा पैदा की गयी सहानुभूति द्वारा मीडिया को नियंत्रित किया जाता है। सामान्य युद्धकालीन सेंसरशिप विशेष रूप से होती है।


7. राष्ट्रीय सुरक्षा का जुनून – एक प्रेरक उपकरण के रूप में सरकार द्वारा इस डर का जनता पर प्रयोग किया जाता है।


8.धर्म और सरकार का अपवित्र गठबंधन —फासिस्ट देशों में सरकारें एक उपकरण के रूप में सबसे आम धर्म को आम राय में हेरफेर करने के लिए प्रयोग करती हैं। सरकारी नेताओं द्वारा धार्मिक शब्दाडंबर और शब्दावली का प्रयोग सरेआम होता है बेशक धर्म के प्रमुख सिद्धांत सरकार और सरकारी कार्रवाईयों के विरुद्ध होते हैं।


9. कारपोरेट पावर संरक्षित होती है – फासीवादी राष्ट्र में औद्योगिक और व्यवसायिक शिष्टजन सरकारी नेताओं को शक्ति से नवाजते हैं जिससे अभिजात वर्ग और सरकार में एक पारस्परिक रूप से लाभप्रद रिश्ते की स्थापना होती है।


10. श्रम शक्ति को दबाया जाता है – श्रम-संगठनों का पूर्ण रूप से उन्मूलन कर दिया जाता है या कठोरता से दबा दिया जाता है क्योंकि फासिस्ट सरकार के लिए एक संगठित श्रम-शक्ति ही वास्तविक खतरा होती है।


11. बुद्धिजीवियों और कला प्रति तिरस्कार – फासीवादी राष्ट्र उच्च शिक्षा और अकादमिया के प्रति दुश्मनी को बढ़ावा देते हैं. अकादमिया और प्रोफेसरों को सेंसर करना और यहाँ तक कि गिरफ्तार करना असामान्य नहीं होता. कला में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति पर खुले आक्रमण किए जाते हैं और सरकार कला की फंडिंग करने से प्राय: इंकार कर देती है।


12. अपराध और सजा प्रति जुनून – फासिस्ट सरकारों के अधीन कानून लागू करने के लिए पुलिस को लगभग असीमित अधिकार दिए जाते हैं. पुलिस ज्यादितियों के प्रति लोग प्राय: निरपेक्ष होते हैं यहाँ तक कि वे सिविल आज़ादी तक को देशभक्ति के नाम पर कुर्बान कर देते हैं। फासिस्ट राष्ट्रों में अक्सर असीमित शक्ति वाले विशेष पुलिस बल होते हैं।

किसके लिए बंटवारा

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने प्रदेश के बंटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में ध्वनि मत से पास करा लिया। पर इसकी गूंज प्रदेश की राजनीति में जमीनी स्तर पर सुनाई नहीं पड़ रही है। सवाल है कि क्या मायावती को ऐसा होने की उम्मीद थी। उनके कार्यकलाप से तो ऐसा लगता नहीं। ऐसा होता तो वे कम से कम अपनी पार्टी की ओर से ही प्रस्तावित राज्यों में अलग प्रदेश की मांग के लिए कोई आंदोलन खड़ा करने की कोशिश करतीं। विपक्षी दलों को ही नहीं अपनी पार्टी और सरकार के लोगों को भी अपने फैसलों से चौंकाना उनकी कार्यशैली का हिस्सा बन चुका है। प्रजातांत्रिक ढंग से सलाह मशविरे की प्रक्रिया के जरिए फैसले लेना उनके स्वभाव में नहीं है क्योंकि इसके लिए उन्हें मशविरा करने वालों को बराबरी का दर्जा देना पड़ेगा और यह उन्हें मंजूर नहीं। विधानसभा में राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव पास करने भर से उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन नहीं होने वाला है। यह बात मायावती भी समझती हैं। सवाल है कि फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? इसके तीन कारण नजर आते हैं। एक उन्हें चुनाव से पहले चर्चा के लिए ऐसे मुद्दे की दरकार थी जिससे उनकी सरकार के कामकाज की समीक्षा से लोगों का ध्यान हटे। इसमें फिलहाल तो वे कामयाब हैं। दूसरा कारण समाजवादी पार्टी है। मायावती समाजवादी पार्टी को अपने राजनीतिक विरोधी का दर्जा नहीं देना चाहतीं। इसलिए चुनाव से पहले उन्हें अपना एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी खड़ा करना था। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस को चुना। उन्हें पता है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का संगठन खोखला हो चुका है। अब राजनीतिक दुश्मन चुन लिया तो उससे लड़ाई होती हुई भी तो दिखे। प्रदेश के बंटवारे के प्रस्ताव के रूप में उन्हें एक मुफीद मुद्दा नजर आया। विधानसभा में प्रस्ताव पारित होने के बाद अब गेंद केंद्र सरकार यानी कांग्रेस के पाले में चली गई है। संसद में नए राज्यों के गठन के संविधान संशोधन विधेयक को पास कराने के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत के लिए भाजपा की तो फिर भी जरूरत पड़ेगी, लेकिन समाजवादी पार्टी की मदद के बिना काम चल सकता है। इस एक कदम से मायावती ने अपने असली राजनीतिक दुश्मन समाजवादी पार्टी को पूरी विधायी प्रक्रिया से बाहर रखने का इंतजाम कर लिया है। तीसरा कारण कांग्रेस और अजित सिंह के लोकदल के संभावित चुनावी गठबंधन के लिए समस्या खड़ी करना है। लोकदल काफी समय से हरित प्रदेश (सरकारी प्रस्ताव में पश्चिम प्रदेश) की मांग कर रहा है। राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव पास करके मायवती ने अजित सिंह को सरकार के फैसले का स्वागत करने के लिए मजबूर कर दिया है। अब अजित सिंह को कांग्रेस पर दबाव डालना पड़ेगा कि इस मुद्दे पर वह सकारात्मक और निश्चित पहल करे। उत्तर प्रदेश में दोनों राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा की कठिनाई यह है कि वे सैद्धांतिक रूप से प्रदेश के बंटवारे के पक्ष में हैं। उन्हें एतराज मायावती के प्रस्ताव के समय और तरीके पर है। इसमें भी कांग्रेस के लिए मुश्किल ज्यादा है। वह उत्तर प्रदेश के बंटवारे के समर्थन में खुलकर आती हैं तो आंध्र प्रदेश में उसकी मुश्किलें बढ़ेंगी। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर चर्चा से केवल मायावती को राजनीतिक फायदा मिलेगा। इसीलिए प्रदेश के बाकी दल इस मुद्दे पर चर्चा से ही बचना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश के बंटवारे के खिलाफ होने के बावजूद समाजवादी पार्टी इसके विरोध में ज्यादा मुखर नहीं होना चाहती। मायावती के इस प्रस्ताव से एक ऐसा अर्थ भी निकलता है जिसे वह नहीं चाहेंगी कि निकाला जाए। उन्होंने प्रदेश के बंटवारे की घोषणा की प्रेस कांफ्रेंस में माना कि पिछले साढ़े चार साल के शासन में वह प्रदेश का सवरंगीण विकास नहीं कर पाई हैं। इसके लिए उन्होंने प्रदेश के आकार को बड़ा कारण बताया। उनका मानना है कि उत्तर प्रदेश को अगर चार प्रदेशों में बांट दिया जाए तो विकास आसान हो जाएगा। प्रशासनिक रूप से छोटे प्रदेशों के गठन पर देश में एक आम सहमति है। पर सवाल है कि क्या आकार छोटा हो जाने से लोगों की विकास संबंधी आकांक्षाएं पूरी हो जाएंगी। झारखंड को देखकर तो नहीं कहा जा सकता कि छोटा बेहतर होता है। विकास के लिए आकार से ज्यादा अहम है उस क्षेत्र के राजनीतिक नेतृत्व की दूरदर्शिता, लोगों की आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशीलता और उन्हें पूरा करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति। छोटे प्रदेश बनाने का मकसद क्या है? विकास या लालबत्ती वाली गाडि़यों की संख्या बढ़ाना। सिर्फ प्रशासनिक सुविधा के लिए नए राज्यों का गठन केंद्र और अंतत: देश की अखंडता के लिए खतरा भी बन सकता है। नए राज्यों के गठन से क्षेत्रीय दलों की संख्या और ताकत दोनों बढ़ेंगी। देश की राजनीति एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहां किसी एक दल के लिए अपने बूते केंद्र में सत्ता में आना निकट भविष्य में संभव नहीं दिखता। राष्ट्रीय दलों का घटता प्रभाव क्षेत्र और उसी अनुपात में क्षेत्रीय दलों का उभार ऐसा मुद्दा है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सत्ता का विकेंद्रीकरण अच्छी अवधारणा है लेकिन गैर जिम्मेदार राजनीति मधु कोड़ा जैसे लोगों को अवसर प्रदान करती है। ऐन चुनाव के वक्त प्रदेश के विभाजन का मुद्दा उछालने से मायावती को कितना राजनीतिक फायदा मिलेगा यह तो निश्चित रूप से कहना कठिन है। पर मायावती सत्ता में लौट आईं तो यही मुद्दा उनके लिए भस्मासुर बन सकता है। फौरी राजनीतिक लाभ के लिए उन्होंने तेलंगाना में कांग्रेस की दुर्गति से कोई सबक लेने की जरूरत नहीं समझी। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को भी सोचने का मौका है कि समस्या प्रदेश का आकार है या राज्य के नेताओं का घटता राजनीतिक कद।